साल 1973 में दिसंबर का महीना था. अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई इंजीनियरिंग कॉलेज की हॉस्टल मेस की फीस में एकाएक 20 प्रतिशत का इजाफा कर दिया गया. खाने की फीस बढ़ने की वजह से छात्र आक्रोशित हो गए. फिर क्या था, छात्रों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया. इसके करीब 13 दिनों बाद गुजरात यूनिवर्सिटी में ऐसा ही एक प्रदर्शन शुरू हो गया. प्रदर्शन की वजह से पुलिस और छात्रों के बीच झड़प हुई और फिर 7 जनवरी को छात्र आमरण अनशन पर बैठ गए. ये आमरण अनशन गुजरात के कई शिक्षण संस्थानों में हो रहा था.
छात्रों का ये आंदोलन बड़ा रूप लेता चला गया. बाद में इसमें टीचर्स और वकील भी शामिल हो गए और नव निर्माण युवक समिति की स्थापना कर मुख्यमंत्री का इस्तीफा मांगना शुरू किया. आंदोलन की चपेट में पूरा गुजरात आ गया था. 25 जनवरी को पूरे गुजरात में पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच झड़पें हुईं. स्थिति इतनी बिगड़ गई कि राज्य की स्थिति संभालने के लिए सेना बुलानी पड़ी. हालत बेकाबू होते देख देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुख्यमंत्री से 9 फरवरी को इस्तीफा ले लिया. इन मुख्यमंत्री का नाम था चिमन भाई पटेल. लेकिन चिमन भाई के इस्तीफे के पीछे सिर्फ आंदोलन जिम्मेदार नहीं था. कहानी कुछ और भी थी.
चिमनभाई दो बार मुख्यमंत्री बने और दोनों बार अपनी कुर्सी नहीं बचा पाए. चिमनभाई, पटेल थे. पटेलों का गुजरात की राजनीति में कितना वर्चस्व है, बताने की जरूरत नहीं है. 1973 में चिमनभाई गुजरात के मुख्यमंत्री थे. चिमनभाई के तेवर इतने तल्ख थे कि इंदिरा गांधी के सामने मुख्यमंत्री बनने से पहले ही ऊंची आवाज में बात कर चुके थे. उस दौर में इंदिरा गांधी के साथ इस तरह कोई बात नहीं करता था. इंदिरा राजनीतिज्ञ थीं, उन्होंने इस ‘बेअदबी’ का अपने समय से जवाब दिया. इंदिरा का जवाब कुछ ऐसा था कि चिमनभाई संभल ही नहीं पाए.